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21 Nov 2025, Fri

गांधीवादी साम्यवाद !वर्ण संकर विचारधारा !उत्पत्ति के कर्ण , व्यापकता और प्रभाव !

उत्तिष्ठ भारतः , मैं राजीव चौबे और आप देख रहे है राष्ट्रीय चेतना न्यूज़ आर सी एन में आप का स्वागत है , आज के विश्लेषण का विषय है गांधीवादी साम्यवाद  ‘ वर्णसंकर विचारधारा की उत्पत्ति के कारण  , व्यापकता और प्रभाव ‘  भारत में प्रचलित राजनीतिक विचारधाराओं में वामपंथी साम्यवादी विचारधारा तथा दक्षिण पंथी राष्ट्रवादी विचारधारा  प्रमुख हैं।  भारतीय साम्यवादी पार्टी  भारत का एक साम्यवादी दल है। इस दल की स्थापना 26 दिसम्बर 1925 को कानपुर नगर में हुई थी भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी की स्थापना एम एन राय ने की थी । 1964 में इसका विभाजन हुआ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी सी पी आई एम का गठन हुआ। दक्षिण पंथी राष्ट्रवादी विचारधारा केअनुयायी राजनैतिक दल भारतीय जनसंघ की स्थापना 21 अक्टूबर 1951 को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में हुई थी। उनके साथ प्रोफेसर बलराज मधोक और दीनदयाल उपाध्याय भी संस्थापक सदस्यों में शामिल थे। 1977 के कॉंग्रेस विरोधी लहार में इस दाल का विलय जनता पार्टी में हो गया किंतु धूर विरोधी समाजवादियों के साथ विचारधारा के टकराव के चलते 1980 में जनसंघियों ने जनता पार्टी से नाता तोड़ राष्ट्रवादी विचारधारा पर आधारित भारतीय जनता पार्टी के नाम से नए राजनैतिक दल का गठन किया और अटल बिहारी बाजपेयी इसके प्रथम अध्यक्ष बने।  
साम्यवादी और राष्ट्रवादी विचारधाराओं विपरीत धुवों पर केंद्रित धूर विरोधी विचारधाराएँ हैं लेकिन आश्चर्यजनक रूप से भारत में इन दोनों विचारधाराओं के पास एक कॉमन टूल है वो है गाँधी।    इस टूल का प्रयोग दोनों ही विचारधाराओं में बराबर अनुपात में होता है।  भारतीय राष्ट्रवाद के सबसे बड़े विचारक रहे पंडित दीन दयाल उपाध्याय और इनके एकात्म मानव दर्शन जिसे आमतौर पर एकात्म मानववाद कहा जाता है इस सिद्धांत को भारतीय जनता पार्टी ने अपने मूल सिद्धांत के रूप में अंगीकार किया है एकात्म मानववाद गांधीवाद से पूर्णतः सहमति ना रखते हुए भी काफी हद तक गांधीवाद के बहुत करीब है क्योंकि इसमें वर्ग संघर्ष पर आधारित साम्यवाद और पूंजीवाद को नकारते राष्ट्र के समस्त नागरिकों के एकात्म होने और समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति के उत्थान की निति ‘अंत्योदय ‘ का सृजन होता है जिसमे अहिंसक वर्ग संघर्ष को बुरी तरह से नकारा गया है और गाँधी की तरह ही स्वदेशी को भी सर्वोच्च  वरीयता दी गई है अतः राष्ट्रवादियों द्वारा गाँधी गान समझ आता है किन्तु , हिंसक वर्ग संघर्ष के सिद्धांतों पर आधारित वामपंथी विचारधारा का गांधीगान समझ से परे है। साम्यवादी विचारधारा जिसके मूल में ईर्ष्या आधारित हिंसा है ,  “power flows through the barrel of a gun” के सिद्धांतों को मानने वाले वाम पंथी जो वैचारिक रूप से गाँधी से कभी सहमत नहीं रहे।  आइये साम्यवाद और गांधीवाद के अंतर को समझते हैं।
                 अहिंसा बनाम वर्ग संघर्ष: गांधीजी का दर्शन अहिंसा और सत्याग्रह पर आधारित था, जिसे वे स्वतंत्रता प्राप्त करने और समाज में बदलाव लाने का एकमात्र नैतिक तरीका मानते थे। इसके विपरीत, कम्युनिस्ट विचारधारा वर्ग संघर्ष को केंद्रीय मानती है और उनका तर्क था कि पूंजीवादी समाजों में क्रांति लाने के लिए हिंसक क्रांति आवश्यक हो सकती है, जैसा कि रूसी बोल्शेविक क्रांति में देखा गया।
साधन और साध्य: गांधीजी का दृढ़ विश्वास था कि पवित्र साध्य  को प्राप्त करने के साधन भी उतने ही पवित्र  होने चाहिए । कम्युनिस्टों के लिए, साध्य (सर्वहारा क्रांति और साम्यवाद की स्थापना) अधिक महत्वपूर्ण था, और उनका मानना था कि इस साध्य  को प्राप्त करने के लिए किसी भी आवश्यक साधन का उपयोग किया जा सकता है।

आर्थिक दर्शन –  कम्युनिस्ट पूंजीवाद के घोर विरोधी थे और चाहते थे कि उत्पादन के साधनों पर श्रमिकों का नियंत्रण हो। गांधीजी ने “ट्रस्टीशिप” (न्यासधारिता) की अवधारणा पेश की, जिसके तहत पूंजीपति वर्ग को अपनी संपत्ति का उपयोग समाज की भलाई के लिए एक न्यासी (trustee) के रूप में करना था। कम्युनिस्टों ने इस अवधारणा को अव्यावहारिक और पूंजीपति वर्ग के हितों की रक्षा करने वाला माना।

अंतरराष्ट्रीय निष्ठा: गांधी और राष्ट्रवादियों को अक्सर कम्युनिस्टों की सोवियत संघ के प्रति निष्ठा पर आपत्ति थी, उनका मानना था कि कम्युनिस्ट नेता भारतीय राष्ट्रीय हितों के बजाय अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के निर्देशों को प्राथमिकता देते हैं।
संक्षेप में, जहां गांधीजी ने सर्वोदय (सभी का उत्थान) और अहिंसक साधनों के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन की वकालत की, वहीं कम्युनिस्टों ने मार्क्सवादी सिद्धांतों के आधार पर वर्ग-विहीन समाज की स्थापना के लिए एक अधिक कट्टरपंथी और  हिंसक दृष्टिकोण का समर्थन किया।  
         आइये अब मूल विषय पर चर्चा करते हैं  इस गांधीवादी साम्यवाद, इस  वर्णसंकर विचारधारा की उत्पत्ति के कारण –  दरअसल पिछले चालीस वर्षों में पूरे विश्व में साम्यवादी व्यवस्था बुरी तरह से चरमरा गई इसकी शुरुवात हुई 3 अक्टूबर 1990 के दिन रूस के प्रभाव वाले साम्यवादी पूर्व  जर्मनी के पश्चिम जर्मनी में विलय और जर्मन एकीकरण से उसके बाद 26 दिसंबर 1991 के दिन सोवियत संघ का विघटन और फिर 1978 में चीन की आर्थिक नीति में बदलाव के बाद साम्यवादी क्रांति से उपजे सभी देश आज पूंजीवाद के मार्ग पर चल रहे हैं , ऐसी स्थिति में वैश्विक रूप से खारिज और मृत साम्यवादी विचारधारा  को भारत में सहारा देने के लिए मजबूत कन्धों की आवश्यकता थी वो कन्धा भारत के सबसे बड़े जन नेता महात्मा गाँधी के अलावा भला कौन हो सकता था।    

इस प्रकार घोर अहिंसक , लोकतंत्र विरोधी और तानाशाह  साम्यवादी विचारधारा में गाँधी के दर्शन के लिए कोई स्थान ही नहीं है फिर भी जब कथित भारतीय बुद्धिजीवी जब बड़ी बेशर्मी से गाँधी गान करते हैं तो ऐसा लगता है कि पूरे देश की जनता को मूर्ख समझना ही इनके स्वयंभू बुद्धिजीवी होने का आधार है।
                                       साम्यवादी गांधीवाद दरअसल ये  High breed ideology है हिंदी में इसे वर्ण संकर विचारधारा कह सकते जैसे घोड़े और गधे का संकरण कर खच्चर बनाया गया भेड़िए और कुत्ते के संकरण से शेफ़र्ड बना उसी तरह ये भेड़िए और भेड़ के संकरण से तैयार विचारधारा है जिसमे खाल भेड़ की है और अंदर भेड़िया है । अब इस वर्णसंकर विचारधारा की  व्यापकता और प्रभाव   को समझने के लिए आइये पहले इन वामपंथियों की मोडस ऑपरेंडी याने की इनकी कार्यशैली को ठीक से समझने की कोशिश करते हैं।  इस वामपंथी व्यवस्था में दो तरह के कार्यकर्त्ता होते हैं जो अलग अलग शारीरिकऔर बौद्धिक रूप से सक्रिय होते हैं। शारीरिक रूप से सक्रीय कार्यकर्त्ता छात्रों ,मजदूरों , किसानों और वनवासियों में असंतोष जगाकर अराजकता और हिंसा को बढ़ावा देते हैं और ये कायकर्ता  गाँधी का नाम लेना भी पसंद नहीं करते वहीं दूसरी और  बौद्धिक रूप से सक्रीय कार्यकर्त्ता सम्प्रेषण के समस्त माध्यमों का प्रयोग कर अपनी विचारधारा का प्रसार करते हैं सम्प्रेषण की माध्यमों में समाचार पत्र , थियेटर , सिनेमा और अब सोशयल मीडिया इनका इनके प्रमुख औज़ार हैं।  देश के कुछ स्वयंभू बड़े बुद्धिजीवी पत्रकार जैसे कि राजदीप सरदेसाई , रविश कुमार , पुण्य प्रसून वाजपेयी , अभिसार शर्मा और आरफा खानम ये इस देश में गांधीवादी साम्यवाद नामक वर्ण संकर विचाधारा के प्रवर्तक हैं। मैं जब इनको सुनता हूँ तो ऐसा लगता है कि ये वाक् कला से कहीं अधिक पाक कला में सिद्धहस्त हैं क्योंकि जिस तरह पाक कला में निपुण कोई खानसामा कोई बावर्ची नमक , शक्कर , मिर्च , करेला और नीम्बू जैसे विपरीत स्वाद और तासीर वाली वस्तुओं को मिला कर कोई व्यंजन तैयार कर लेता है करेले के अंदर नमक मिर्च नीम्बू का मसाला भर उसके ऊपर शक्कर का आवरण चढ़ा देता है उसी बावर्ची की तरह ये भी  भेड़िये को बड़ी सहजता से भेड़ के आवरण में सजा कर अर्थात  हिंसक साम्यवाद के ऊपर अहिंसक गांधीवाद का आवरण चढ़कर हमारे सामने रख देते हैं।  

              ये भी विचित्र विडंबना है कि देश के बहुसंख्यक पाठकों , श्रोताओं और दर्शकों द्वारा नकारे जाने के बावजूद इन कथित बुद्धिजीवियों के पास सीमित ही सही किन्तु कुछ तो फॉलोइंग शेष है जो इस मरती हुई विचारधारा को प्राणवायु दे रही है देखना ये है कि इन्हे ये प्राणवायु कब तक मिलेगी ? 

By editor